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اِنَّ الَّذِيْنَ يَتْلُوْنَ كِتٰبَ اللّٰهِ وَاَقَامُوا الصَّلٰوةَ وَاَنْفَقُوْا مِمَّا رَزَقْنٰهُمْ سِرًّا وَّعَلَانِيَةً يَّرْجُوْنَ تِجَارَةً لَّنْ تَبُوْرَۙ   ( فاطر: ٢٩ )

Indeed
إِنَّ
बेशक
those who
ٱلَّذِينَ
वो जो
recite
يَتْلُونَ
पढ़ते हैं
(the) Book
كِتَٰبَ
किताब
(of) Allah
ٱللَّهِ
अल्लाह की
and establish
وَأَقَامُوا۟
और वो क़ायम करते हैं
the prayer
ٱلصَّلَوٰةَ
नमाज़
and spend
وَأَنفَقُوا۟
और वो ख़र्च करते हैं
out of what
مِمَّا
उसमें से जो
We have provided them
رَزَقْنَٰهُمْ
रिज़्क़ दिया हमने उन्हें
secretly
سِرًّا
पोशीदा
and openly
وَعَلَانِيَةً
और अलानिया
hope
يَرْجُونَ
वो उम्मीद रखते हैं
(for) a commerce -
تِجَٰرَةً
ऐसी तिजारत की
never
لَّن
हरगिज़ ना
it will perish
تَبُورَ
वो तबाह होगी

Inna allatheena yatloona kitaba Allahi waaqamoo alssalata waanfaqoo mimma razaqnahum sirran wa'alaniyatan yarjoona tijaratan lan taboora (Fāṭir 35:29)

Muhammad Faruq Khan Sultanpuri & Muhammad Ahmed:

निश्चय ही जो लोग अल्लाह की किताब पढ़ते हैं, इस हाल मे कि नमाज़ के पाबन्द हैं, और जो कुछ हमने उन्हें दिया है, उसमें से छिपे और खुले ख़र्च किया है, वे एक ऐसे व्यापार की आशा रखते है जो कभी तबाह न होगा

English Sahih:

Indeed, those who recite the Book of Allah and establish prayer and spend [in His cause] out of what We have provided them, secretly and publicly, [can] expect a transaction [i.e., profit] that will never perish – ([35] Fatir : 29)

1 Suhel Farooq Khan/Saifur Rahman Nadwi

बेशक जो लोग Âुदा की किताब पढ़ा करते हैं और पाबन्दी से नमाज़ पढ़ते हैं और जो कुछ हमने उन्हें अता किया है उसमें से छिपा के और दिखा के (खुदा की राह में) देते हैं वह यक़ीनन ऐसे व्यापार का आसरा रखते हैं