ثُمَّ اَنْزَلَ عَلَيْكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ الْغَمِّ اَمَنَةً نُّعَاسًا يَّغْشٰى طَۤاىِٕفَةً مِّنْكُمْ ۙ وَطَۤاىِٕفَةٌ قَدْ اَهَمَّتْهُمْ اَنْفُسُهُمْ يَظُنُّوْنَ بِاللّٰهِ غَيْرَ الْحَقِّ ظَنَّ الْجَاهِلِيَّةِ ۗ يَقُوْلُوْنَ هَلْ لَّنَا مِنَ الْاَمْرِ مِنْ شَيْءٍ ۗ قُلْ اِنَّ الْاَمْرَ كُلَّهٗ لِلّٰهِ ۗ يُخْفُوْنَ فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ مَّا لَا يُبْدُوْنَ لَكَ ۗ يَقُوْلُوْنَ لَوْ كَانَ لَنَا مِنَ الْاَمْرِ شَيْءٌ مَّا قُتِلْنَا هٰهُنَا ۗ قُلْ لَّوْ كُنْتُمْ فِيْ بُيُوْتِكُمْ لَبَرَزَ الَّذِيْنَ كُتِبَ عَلَيْهِمُ الْقَتْلُ اِلٰى مَضَاجِعِهِمْ ۚ وَلِيَبْتَلِيَ اللّٰهُ مَا فِيْ صُدُوْرِكُمْ وَلِيُمَحِّصَ مَا فِيْ قُلُوْبِكُمْ ۗ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ ۢبِذَاتِ الصُّدُوْرِ ( آل عمران: ١٥٤ )
Thumma anzala 'alaykum min ba'di alghammi amanatan nu'asan yaghsha taifatan minkum wataifatun qad ahammathum anfusuhum yathunnoona biAllahi ghayra alhaqqi thanna aljahiliyyati yaqooloona hal lana mina alamri min shayin qul inna alamra kullahu lillahi yukhfoona fee anfusihim ma la yubdoona laka yaqooloona law kana lana mina alamri shayon ma qutilna hahuna qul law kuntum fee buyootikum labaraza allatheena kutiba 'alayhimu alqatlu ila madaji'ihim waliyabtaliya Allahu ma fee sudoorikum waliyumahhisa ma fee quloobikum waAllahu 'aleemun bithati alssudoori (ʾĀl ʿImrān 3:154)
Muhammad Faruq Khan Sultanpuri & Muhammad Ahmed:
फिर इस शोक के पश्चात उसने तुमपर एक शान्ति उतारी - एक निद्रा, जो तुममें से कुछ लोगों को घेर रही थी और कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें अपने प्राणों की चिन्ता थी। वे अल्लाह के विषय में ऐसा ख़याल कर रहे थे, जो सत्य के सर्वथा प्रतिकूल, अज्ञान (काल) का ख़याल था। वे कहते थे, 'इन मामलों में क्या हमारा भी कुछ अधिकार है?' कह दो, 'मामले तो सबके सब अल्लाह के (हाथ में) हैं।' वे जो कुछ अपने दिलों में छिपाए रखते है, तुमपर ज़ाहिर नहीं करते। कहते है, 'यदि इस मामले में हमारा भी कुछ अधिकार होता तो हम यहाँ मारे न जाते।' कह दो, 'यदि तुम अपने घरों में भी होते, तो भी जिन लोगों का क़त्ल होना तय था, वे निकलकर अपने अन्तिम शयन-स्थलों कर पहुँचकर रहते।' और यह इसलिए भी था कि जो कुछ तुम्हारे सीनों में है, अल्लाह उसे परख ले और जो कुछ तुम्हारे दिलों में है उसे साफ़ कर दे। और अल्लाह दिलों का हाल भली-भाँति जानता है
English Sahih:
Then after distress, He sent down upon you security [in the form of] drowsiness, overcoming a faction of you, while another faction worried about themselves, thinking of Allah other than the truth – the thought of ignorance, saying, "Is there anything for us [to have done] in this matter?" Say, "Indeed, the matter belongs completely to Allah." They conceal within themselves what they will not reveal to you. They say, "If there was anything we could have done in the matter, we [i.e., some of us] would not have been killed right here." Say, "Even if you had been inside your houses, those decreed to be killed would have come out to their death beds." [It was] so that Allah might test what is in your breasts and purify what is in your hearts. And Allah is Knowing of that within the breasts. ([3] Ali 'Imran : 154)
1 Suhel Farooq Khan/Saifur Rahman Nadwi
फिर ख़ुदा ने इस रंज के बाद तुमपर इत्मिनान की हालत तारी की कि तुममें से एक गिरोह का (जो सच्चे ईमानदार थे) ख़ूब गहरी नींद आ गयी और एक गिरोह जिनको उस वक्त भी (भागने की शर्म से) जान के लाले पड़े थे ख़ुदा के साथ (ख्वाह मख्वाह) ज़मानाए जिहालत की ऐसी बदगुमानियॉ करने लगे और कहने लगे भला क्या ये अम्र (फ़तेह) कुछ भी हमारे इख्तियार में है (ऐ रसूल) कह दो कि हर अम्र का इख्तियार ख़ुदा ही को है (ज़बान से तो कहते ही है नहीं) ये अपने दिलों में ऐसी बातें छिपाए हुए हैं जो तुमसे ज़ाहिर नहीं करते (अब सुनो) कहते हैं कि इस अम्र (फ़तेह) में हमारा कुछ इख़्तियार होता तो हम यहॉ मारे न जाते (ऐ रसूल उनसे) कह दो कि तुम अपने घरों में रहते तो जिन जिन की तकदीर में लड़के मर जाना लिखा था वह अपने (घरो से) निकल निकल के अपने मरने की जगह ज़रूर आ जाते और (ये इस वास्ते किया गया) ताकि जो कुछ तुम्हारे दिल में है उसका इम्तिहान कर दे और ख़ुदा तो दिलों के राज़ खूब जानता है