۞ اَفَتَطْمَعُوْنَ اَنْ يُّؤْمِنُوْا لَكُمْ وَقَدْ كَانَ فَرِيْقٌ مِّنْهُمْ يَسْمَعُوْنَ كَلَامَ اللّٰهِ ثُمَّ يُحَرِّفُوْنَهٗ مِنْۢ بَعْدِ مَا عَقَلُوْهُ وَهُمْ يَعْلَمُوْنَ ( البقرة: ٧٥ )
Afatatma'oona an yuminoo lakum waqad kana fareequn minhum yasma'oona kalama Allahi thumma yuharrifoonahu min ba'di ma 'aqaloohu wahum ya'lamoona (al-Baq̈arah 2:75)
Muhammad Faruq Khan Sultanpuri & Muhammad Ahmed:
तो क्या तुम इस लालच में हो कि वे तुम्हारी बात मान लेंगे, जबकि उनमें से कुछ लोग अल्लाह का कलाम सुनते रहे हैं, फिर उसे भली-भाँति समझ लेने के पश्चात जान-बूझकर उसमें परिवर्तन करते रहे?
English Sahih:
Do you covet [the hope, O believers], that they would believe for you while a party of them used to hear the words of Allah and then distort it [i.e., the Torah] after they had understood it while they were knowing? ([2] Al-Baqarah : 75)
1 Suhel Farooq Khan/Saifur Rahman Nadwi
(मुसलमानों) क्या तुम ये लालच रखते हो कि वह तुम्हारा (सा) ईमान लाएँगें हालाँकि उनमें का एक गिरोह (साबिक़ में) ऐसा था कि खुदा का कलाम सुनाता था और अच्छी तरह समझने के बाद उलट फेर कर देता था हालाँकि वह खूब जानते थे और जब उन लोगों से मुलाक़ात करते हैं